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---- नए विकल्प की तलाश ----

संगम विजन न्यूज पोर्टल पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नए विकल्प की तलाश के प्रति कृतसंकल्प है।

विकल्प है वर्तमान को सही संदर्भ में देखने और परखने की जीजिविषा। कहने की जरूरत नहीं कि पत्रकारिता आज मुख्यतः रूप से दो खेमे में बंट गयी है। एक खेमा है जो सत्ता के प्रति समर्पित है। यदि कोई विरोध करता है तो उसे देशद्रोही कहने में उसे हिचक नहीं। और दूसरा खेमा, हर स्तर पर सरकार का विरोध कर रहा है। उसे सरकार की अच्छी योजनाएं भी जन विरोधी लगती हैं। यदि विचारधारा के स्तर पर यह संघर्ष होता तो इसे स्वीकार किया जा सकता था। पर स्थिति ठीक इसके विपरीत है। इन सबके बीच संगम विजन लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पित रहेगा।

लौटते हैं सत्तर और अस्सी के दशक के बीच। इसके पूर्व वर्ष 1967 में समाजवादी नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया के ‘गैर कांग्रेसवाद’ ने कांग्रेस को हिंदी पट्टी के सात राज्यों से सत्ता से बेदखल कर दिया था, पर गठबंधन की सरकारें ज्यादा दिनों तक सत्ता में कायम नहीं रह सकीं। इन राज्यों में कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गयी। सत्तर के दशक के दौरान इंदिरा गांधी राजनीति ही नहीं भारत के राजनीतिक जीवन में स्थापित हो चुकी थीं। विश्व पटल पर बांग्लादेश का उदय हो चुका था। यह पहले पूर्वी पाकिस्तान था। इससे पूर्व इंदिरा गांधी बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स का उन्मूलन कर चुकी थीं। उनके इन क्रांतिकारी निर्णयों ने उनकी गरीब समर्थक और सामंतवाद विरोधी नेता की छवि बना दी थी। हालांकि, ये निर्णय दोनों कम्युनिष्ट पार्टियों के दबाव में लिये गये थे। पाकिस्तान का विभाजन और सिक्किम के भारत में विलय ने उन्हें अपराजेय योद्धा बना दिया था।

दुनिया के कम्युनिष्ट देशों खासकर सोवियत संघ वर्तमान में रूस से दोस्ती ने उन्हें वामपंथ का स्वीकार्य नेता बना दिया। उसी दौर में विपक्षी पार्टियां भी मजबूती के साथ उनकी नीतियों के खिलाफ संघर्ष कर रही थीं। दिलचस्प है कि जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी जैसी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ एक बार फिर विभिन्न धड़े में बंटी समाजवादी पार्टी भी आ गयी और उन्हें नेतृत्व मिला लोकनायक जयप्रकाश नारायण का। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खुलकर जेपी आंदोलन का समर्थन कर रहा था। जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आरोप लगाया कि जयप्रकाश नारायण फासिस्ट ताकतों के साथ मिल गये हैं, जाहिर है इशारा संघ की ओर था। इस पर जयप्रकाश नारायण ने कहा कि यदि संघ फासिस्ट है तो मैं भी फासिस्ट हूं। आपातकाल के दौरान प्रेस पर सेंसरशिप लगा दिया गया, लाखों लोगों को जेलांे में डाल दिया गया। इतना ही नहीं नसबंदी कार्यक्रम के दौरान जबरिया नसबंदी का भी आरोप लगा, पर इसके लिए दोषी संजय गांधी को माना गया। आपातकाल के बाद हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी के हाथ से सत्ता फिसल गयी और वह खुद रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव हार गयीं। इसके बावजूद गरीब समर्थक नेता की उनकी छवि बनी रही। बिहार के बेलछी हत्याकांड के बाद उनकी फिर सत्ता में वापसी हुई और दिल्ली में हुए गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन ने उन्हें तीसरी दुनिया का सबसे मजबूत नेता बना दिया। इंदिरा गांधी आगे फिर तेजी से बढ़तीं लेकिन पंजाब के खालिस्तानी आंदोलन ने उन्हें नये संकट में डाल दिया। इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।

इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद विचारधारा के स्तर पर वामपंथ और दक्षिणपंथ की बहस कमजोर हो गयी। जैसे-जैसे भारतीय जनता पार्टी मजबूत होती गयी या यूं कहें सत्ता के करीब आती गयी बहस इकतरफा हो गयी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार तक तो गनीमत थी अब तो स्थिति सीधे पलट गयी है। वामपंथी यानी देशद्रोही, स्थिति यहीं तक नहीं रुक रही। अब तो वामपंथी बुद्धिजीवियों के लिए अरबन नक्सलाइट और न जाने कितने शब्द दिन-रात गढ़े जा रहे हैं। इस मुहिम में सत्ता के इर्दगिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले पत्रकारों की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

इसे स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि देश का विभाजन धर्म के आधार पर ही हुआ था। इसलिए जो कारक देश विभाजन के प्रति जिम्मेदार थे, उनके खिलाफ कठोरता पूर्वक कदम उठाया जाना चाहिए था। आरोप है कि नेहरू से लेकर राजीव गांधी और मनमोहन सिंह की सरकारों तक ने एक समुदाय के प्रति विशेष नरमी बरती। यही कारण है कि देश में साम्प्रदायिक ताकतें फली फूलीं।

बहरहाल, अब स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि ‘सर तन से जुदा’ जैसे नारे दिये जा रहे हैं। यह खतरा नये स्वरूप में देश के सामने आ रहा है। इन खतरों के खिलाफ मोदी सरकार के साथ पूरा देश एकजुट है। विपक्षी पार्टियों को भी समझना चाहिए कि महंगाई और बेरोजगारी से बड़ा मुद्दा देश की एकता और अखंडता को बचाये रखने की है। साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर उन्हें समझौता नहीं संघर्ष का रास्ता अपनाना चाहिए। विपक्ष खासकर कांग्रेस पार्टी को याद रखना चाहिए कि जो राजीव गांधी लोकसभा में करीब चार सौ चार के प्रचंड बहुमत से सत्ता में आये थे, शाहबानू प्रकरण के बाद बुरी तरह पराजित हो गये। फिर कभी कांगे्रस पार्टी अकेले दम पर बहुमत में नहीं आयी। स्पष्ट रूप से कहूं तो हिन्दू जनमानस को लगा कि कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए किसी भी स्तर तक जा सकती है, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने के लिए संविधान में संशोधन तक भी। संगम विजन के पास इतिहास को निरपेक्ष ढ़ंग से समझने और परखने की क्षमता है तो वर्तमान की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति भी। हम भविष्य की ओर आशा भरी निगाहों देख रहे हैं। हमारे पास गांधी, नेहरू, पटेल, लोहिया, जयप्रकाश, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे भारत माता के सपूतों की थाती है तो मोदी जैसे चमत्कारिक नेतृत्व का संबल। आज सवाल पक्ष-विपक्ष का नहीं देश के ज्वलंत मुद्दों का है। वामपंथ, दक्षिणपंथ, साम्प्रदायिकता, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे तमाम मुद्दे हैं जो लोकतंत्र में सत्ता पलट की सामथ्र्य रखते हैं। इसलिये देश में मजबूत लोकतंत्र की जरूरत है। यह तभी संभव है जब समाज में अंतिम छोड़ पर बैठे व्यक्ति को भी लगे कि शासन में हमारी भी भागीदारी है। हम विश्वास दिलाते हैं कि संगम विजन मजबूत लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए पहरुआ का काम करता रहेगा। आप संगम विजन न्यूज पोर्टल की खबरें ट्वीटर, फेसबुक एवं इंस्टाग्राम पर भी पढ़ सकते हैं। इसके साथ ही कई कार्यक्रम वीडियो के माध्यम से भी देख सकते हैं।

बी. एन त्रिपाठी

(संपादक )

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